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कविता

भ्रम से बाहर

प्रदीप जिलवाने


दो खाली खयालों के बीच एक भरा-पूरा पेड़ भी हो सकता है
जिस पर गुच्छे-गुच्छे फल भी लगे हो सकते हैं

और उन फलों को कुतरते सुग्गों के दल भी
इस तरह वहाँ बहुत शोर भी हो सकता है
जबकि खयालों के बाहर
खालीपन की चौकसी कर रही होती है चुप्पी

मेरा भ्रम मुझे बताता है कि
यह चुप्पी तुम्हारी दानेदार हँसी की खनक से टूटेगी
और साथ ही साथ वे सारे किरदार भी
जो मेरे भीतर कुलबुलाते हैं
मेरा भ्रम तो मुझे यह भी बताता है कि
तुम जब कच्चे आम को अपने दाँतों से काटकर खाती हो,
तुम्हें मेरे गाल याद आते हैं

भ्रम के बाहर
मेरा एकांत, तुम्हारे एकाकीपन से संवाद रचता है
बीच में विवशता का कोई पुल है
जिससे होकर आवाजाही करते हैं अदेखे स्वप्न
मैं अपने समस्त छूटे हुए और अकिये चुंबन
उस अथाह जलराशि में तिरोहित कर देना चाहता हूँ
जो उस पुल के नीचे इतराता हुआ बह रहा है
अपनी समस्त निरर्थकताओं के बावजूद

अपने भ्रम की बातों में बहुत आसानी से आता हूँ मैं
इस तरह मेरी सोच की गोल परिधि पर
तुम्हारे नाम के अक्षर अनंत फेरे लगा रहे होते हैं
और मैं सुन रहा होता हूँ उन्हें ध्वनित होते हुए
तुम्हारे नाम के साथ अपने नाम का उच्चारण
एक मीठी गुदगुदी से भर देता है मुझे

 


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